Sunday, September 16, 2007

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जो खिडकी के बाहर हैं

वे नहीं जानते क्या हो रहा भीतर

आवाजों के सहारे लगाते हैं अटकलें

दौडाते हैं कल्पनाओं के घोडे

खिडकी से झांकती हर आकृति उन्हे लगती है एक जैसी

एक जैसी आंख से देखते हुए

वे करते हैं एक जैसी टिप्पणी


खिडकी के भीतर जो हो रहा है

से भीतर से ही महसूसा जा सकता है

सुनी हुई आवाजों से कहीं अधिक शोर भरा होता है भीतर की तरफ